जाड़ों में प्रायः
दिख जाते हैं, वृद्ध-दंपत्ति,
झुकी हुई माँ ,कांपते हुए
पिता.....धूप सेकते हुए.....
कभी 'पार्क'में,कभी
'बालकनी'में,
कभी 'लॉन' में
तो कभी'बरामदों' में.
मोड़-मोड़कर
चढ़ाये हुए 'आस्तीन'
और
खींच-खींचकर
लगाये हुए'पिन' में
दिख जाता है.......वर्षों से
विदेशों में बसे,
उनके धनाढ्य बाल-बच्चों का
भेजा हुआ,
बेहिसाब प्यार .
ऊल-जलूल ,पुराने,शरीर से
कई गुना बड़े-बेढंगे
कपड़ों का
दुःखद सामंजस्य,
सुदूर........किसी देश में
सम्पन्नता की
परतों में
लिपटी हुई नस्ल को,
धिक्कारती.......
ठंढ से निश्चय ही बचा लेती है,
इस पीढ़ी की सामर्थ्य को
संभाल लेती है........लेकिन
कृतघ्नता के आघात की
वेदना का
क्या......
आपसे अनुरोध है......
इतना ज़रूर कीजियेगा,
कभी किसी देश में
मिल जाये वो नस्ल......तो
इंसानियत का कम-से कम
एक पर्चा,
ज़रूर
पढ़ा दीजियेगा..........
behtreen bhaav sanjoye hain
ReplyDeleteबेहतरीन.........एक दम सटीक.....
ReplyDeleteऐसे बेनाप के विदेशी कपड़ों से प्रेम प्रदर्शन हमने भी देखा है....
सादर
अनु
ऐसा ही एक बाप हमारे पास भी आया था कि मेरा बेटा विदेश जाते समय कुछ डॉलर छोड़ गया है मेरे लिये.. इसके कितने पैसे मिलेंगे!! और मेरी आँखों में आंसू आ गए... उसके हाथ में सिर्फ दस डॉलर थे! उसे लगा कि अमीर बेटे ने कोई खज़ाना छोड़ा होगा उसके लिये!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (25-11-2013) को "उपेक्षा का दंश" (चर्चा मंचःअंक-1441) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
दिल को छू गयी आपकी रचना .............
ReplyDeleteबहुत सुन्दर एहसास की अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteनई पोस्ट तुम
विवशता या अज्ञान ही ऐसे कार्य कराते हैं...
ReplyDeleteदिल को छू गयी..आप की रचना..
ReplyDeleteबहुत गहन और सटीक विषय पर लिखी एक सार्थक पोस्ट |
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