तब........
मुठ्ठी में था आकाश,
कभी निकलकर
आँखों में रहता था,
कभी आस-पास.
फिर......
मुठ्ठी बड़ी हो गई,
आकाश फैलता गया,
मुठ्ठी छोटी पड़ गई,
आँखें,ख्वाबों से भर गई.
इसी बीच
हमारे शहर के
ऊँचाईयों की ओट में,
रहने लगा
आकाश......
बस ज़रा सा
रह गया
आस-पास.
निकल गया आसमां मुट्ठी से , खाली खाली सा हो गया मन , जाने कहाँ खो गया आसमां !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...एक कल्पना की उड़ान...
ReplyDeleteअब तो आसमान का ज़रा सा टुकड़ा ही दिखता है ...सुंदर रचना
ReplyDeleteहाथों से निकल जाता है जब आकाश तो सब कुछ खाली हो जाता है ... सांय सांय करता खाली आकाश ...
ReplyDeleteआकाश......
ReplyDeleteबस ज़रा सा
रह गया
आस-पास.
Zara-sa bhee rah jaye phir bhee theek hai,warna to kuchh bhee nahee rahta! Bahut hee sundar rachana!
ऊँचाईयों की ओट में,
ReplyDeleteरहने लगा
आकाश......
बस ज़रा सा
रह गया
आस-पास.
वाह ... बेहतरीन
बड़े शहरों की त्रासदी
ReplyDeleteन जाने कहाँ खो गया आसमांन,,,,
ReplyDeleteकल्पनाओं की की बढ़िया प्रस्तुति,,,,
RECENT POST...: जिन्दगी,,,,
कविता की व्यंजना, तंज होती मुट्ठी और विस्तृत होती अकांक्षा की ओट में, मानव स्वभाव की लुका-चिपी की बेहतर प्रस्तुति करती है।
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ReplyDeleteफिर......
ReplyDeleteमुठ्ठी बड़ी हो गई,
आकाश फैलता गया,
मुठ्ठी छोटी पड़ गई,
आँखें,ख्वाबों से भर गई.
फिर भी चाह है शहर की उचे इमारतों की जहाँ छुप जाता है आसमां
अहा! बहुत ही खूब.. आज की सच्चाई है यह कृति!
ReplyDeleteआकाश अब भी है वैसा का वैसा..बस नजर चाहिए..
ReplyDeleteदो गज ज़मीं और मुट्ठी भर आकाश से अधिक समेट लेने की होड ने आकाश तो गंवा ही दिया है शायद धरती भी न बचे!! बहुत ही गहरी बात, बड़े साढ़े हुए अन्दाज़ में आपने प्रस्तुत किया है!!
ReplyDeleteज़रा-सा आसमान भी कईयों को नसीब नहीं. कहीं धरती नहीं कहीं आसमान नहीं... शहरीकरण का सब खेल. सुन्दर रचना, बधाई.
ReplyDeleteसुन्दर भाव... आकाश......
ReplyDeleteबस ज़रा सा
रह गया
आस-पास.
ऊँचाईयों की ओट में रह गया छोटा सा आसमान जो मुट्ठी से निकल गया था !
ReplyDeleteबेहतरीन !
ना जमीन रही और ना आसमान। अच्छा चिंतन।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर..!!
ReplyDeleteजी बिलकुल सच कह रही हैं अब तो आकाश देखने के लिए सड़क पर निकलना पड़ता है
ReplyDeleteमहानगर की त्रासदी और ख्वाबों के लिये छोटा पडता आसमान ।
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