तुम्हारे साथ बीते वे पल ....
मैं कहती उन्हें
ठंढी हवा का
एक झोंका..अगर
जेठ की
दुपहरी होती
पर अगहन-पूस की
शाम में,
ठंढी हवा
शीत-लहरी होती है,
राहत नहीं पहुँचाती
सूई सी
चुभोती है..इसीलिए
बदलनी होगी
पुरानी मान्यतायें,
पुरानी कल्पनायें
और
कहना होगा..
तुम्हारे साथ बीते वे पल.......
जैसे हल्की सी
आहट हो
गर्म-गर्म हवा की,
दिल-ओ-दिमाग को
सुकून सी पहुँचाती हो.
मैं कहती उन्हें
ठंढी हवा का
एक झोंका..अगर
जेठ की
दुपहरी होती
पर अगहन-पूस की
शाम में,
ठंढी हवा
शीत-लहरी होती है,
राहत नहीं पहुँचाती
सूई सी
चुभोती है..इसीलिए
बदलनी होगी
पुरानी मान्यतायें,
पुरानी कल्पनायें
और
कहना होगा..
तुम्हारे साथ बीते वे पल.......
जैसे हल्की सी
आहट हो
गर्म-गर्म हवा की,
दिल-ओ-दिमाग को
सुकून सी पहुँचाती हो.
बहुत बढ़िया..मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ!,,
ReplyDeleteअनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने ...
ReplyDeleteसुंदर भाव, समय के साथ मान्यताएं बदलनी ही होंगीं
ReplyDeleteभावो को संजोये रचना......
ReplyDeleteबहुत सार्थक भावपूर्ण प्रस्तुति...
ReplyDeleteजैसे हल्की सी
ReplyDeleteआहट हो
गर्म-गर्म हवा की,
दिल-ओ-दिमाग को
सुकून सी पहुँचाती हो.
सार्थक भावपूर्ण
बहुत सुंदर सारगर्भित प्रस्तुति,,,
ReplyDeleterecent post: मातृभूमि,
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी .बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें.आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...
ReplyDeleteवाह बहुत ही सुन्दर।
ReplyDeleteसमय के साथ उपमाएं भी बदल जाती हैं..
ReplyDeleteपरम्पराओं और रूढियों में बड़ा बारीक सा अंतर है.. परम्पराओं को मानने को जी चाहता है, क्योंकि उनमें बदलाव की गुंजायश होती है.. मगर रूढियां, बेडियाँ बन जाती हैं!!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से कही है आपने अपनी बात!!
बीते पलों की सुन्दर बानगी.........
ReplyDeleteहमारी सोच के मौसम पर निर्भर है उपमाएं । बहुत प्यारी कविता नरम धूप के कोमल गर्माहट सी ।
ReplyDeleteACHHI RACHNA..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता, बधाई.
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